मैं तुमको भूल नहीं पाता

यह कविता मेरे मन में बाबा नागार्जुन की प्रसिद्ध रचना 'तब मैं तुम्हे भूल जाता हूँ' पढ़ते हुए एक प्रतिक्रिया के रूप में जन्मी थी. यूँ मेरी हैसियत तो नही, पर इसे मैं बाबा को ही समर्पित करना चाहूँगा.

हर्षित होकर वर्षाऋतु का
अभिनंदन करते वृक्ष सघन,
काले मेघों का जब प्यासी
धरती करती है आवाहन
श्रावण की नीरव रजनी में,
रह-रह कर जब धीमे-धीमे
पपीहा दारूण स्वर में गाता,
मैं तुमको भूल नहीं पाता

वह अतुल रूप, वह श्याम वर्ण,
मुख पर अव्यवस्थित केश सघन,
वह कृत्रिम क्रोध से भरी हँसी,
पर भेद खोलते धृष्ट नयन
कोमल कपोल, रक्ताभ अधर,
कोकिल समान वह सुमधुर स्वर,
यह चित्र कभी मन में आता,
फिर तुमको भूल नहीं पाता

वैसे तो तुम्हे भुलाने के
जाने कितने ही किये यत्न,
पर तुमसे ध्यान हटा पाने के
व्यर्थ गये सारे प्रयत्न
है याद तुम्हारी आती जब,
संकल्प धरे रह जाते सब,
मैं अपने पर ही झुँझलाता,
अब तुमको भूल नहीं पाता

ग़ज़ल

एह्सास-ए-जाँ लिखूँ, या सुरूर-ए-क़ज़ा लिखूँ ।
जो ख़ुद ही एक ग़ज़ल हो, अब मैं उसपे क्या लिखूँ॥

इरशाद पे जिसके क़लम उठाई है फिर से,
पहले तो मैं उस ख़ूबरू का शुक्रिया लिखूँ ॥

चाहे न कोइ भी हो, बस इक वो हों मेरे साथ,
फिर तो मैं एक नई तवारिख़-ए-जहाँ लिखूँ ॥

मेहताब से रुख़सार पे ज़ुल्फ़ों के ये बादल,
हट जाएँ ग़र तो उनकी हया का बयाँ लिखूँ॥

यूँ तुमपे तो बहुतों ने लिखा होगा बहुत कुछ,
क़ोशिश है कि हर लफ़्ज़ मैं सबसे जुदा लिखूँ॥

उसकी हर एक अदा से बिखरते हैं रंग सौ,
मुश्किल में हूँ, किस रंग में उसकी अदा लिखूँ॥

तय है कि जिसकी कोई सही इंतिहा नहीं,
फिर क्यों मैं ऎसी दास्ताँ की इब्तिदा लिखूँ?

जो कुछ भी दिल में आया, मैं लिखता चला गया,
अब तुम कहो तो फिर से मैं बाक़ायदा लिखूँ ॥

अधूरी ग़ज़ल

माना कि तेरा जाना ऐ दोस्त, ज़रूरी है ।
कुछ देर ठहर जाओ, मेरी ग़ज़ल अधूरी है ॥

क्यों कोई मेरी ख़ातिर वक्त अपना करे ज़ाया,
मैं काश समझ पाता, सबकी मजबूरी है ॥

इतने न क़रीब आयें, कि दूर ही हो जायें,
इस से बेहतर बल्कि थोड़ी सी दूरी है ॥

ग़ज़ल

शाम ढले घर वापस आना क्या हर रोज़ ज़रूरी है ?
इज़्ज़त का परचम लहराना क्या हर रोज़ ज़रूरी है?

वक्त का क्या है, वह तो अपनी धुन में चलता जाता है,
वक्त से अपनी दौड़ लगाना क्या हर रोज़ ज़रूरी है?

सबकुछ रौशन करने वाले बूढ़े तन्हा सूरज का
तारीक़ी में गुम हो जाना क्या हर रोज़ ज़रूरी है ?

ख़ुद को सबसे बेहतर साबित करने की सबकी क़ोशिश,
यही क़वायद करते जाना क्या हर रोज़ ज़रूरी है ?

तुम से जब मिलता हूं, कुछ मिसरे से ज़हन में आते हैं,
उनकी पूरी ग़ज़ल बनाना क्या हर रोज़ ज़रूरी है ?

मैं तुमको चाहा करता हूँ...

तुम्हे पा लूँ, ऐसी चाह नहीं,
चाहूँ भी तो कोई राह नहीं,
बेमक़सद, बेमतलब यूँ ही
मैं तुमको सोचा करता हूँ।

ग़ज़लों की उन्ही किताबों में,
उन सूखे हुए गुलाबों में,
जागी आँखों के ख़्वाबों में
मैं तुमको देखा करता हूँ।

जब साँसें बोझिल होती हैं,
धुंधली हर मंज़िल होती है,
जब दुनिया क़ातिल होती है,
मैं तुमको ढूंढा करता हूँ।

यूँ मुझे नियति पर नहीं यक़ीँ,
कोइ ईश्वर मेरा पूज्य नहीं,
पर ऐसा कुछ है अगर कहीं,
मैं तुमको मांगा करता हूँ।

ये रिश्ता तुम पर भार न हो,
शायद तुमको स्वीकार न हो,
मुझे कहने का अधिकार न हो,
(पर) मैं तुमको 'अपना' कहता हूँ।

मेरा मन

मेरा मन
अनुभवहीन
होने को चिर आनंद में विलीन
उत्सुक सदैव
किन्तु हा, दुर्दैव!
कठोर यथार्थ से अनभिज्ञ
व्यक्तिगत स्वार्थ से अपरिचित
कुटिल भावनाओं
अज्ञात आशंकाओं से
हर क्षण घिरा
फिर भी यह सरफिरा
उल्लासित
उत्साहित
एक समृद्ध अकिंचन
यह मेरा मन।

मेरी पहली कविता

अनंत का विस्तार
अनंत से
अनंत तक,
अर्थात शून्य..

शून्य की सत्ता
अकल्प
अपरिमित,
अनंत..

स्वप्न हमारे
अनंत
अपरिमित,
होने को सभी संभावित,
किन्तु यथार्थ में
शून्य।